हाशिया गवाह
भगवान अटलानी
(१)
यद्यपि यह निमन्त्रण कन्हैयालाल जी मंगल के लिये अनपेक्षित नही था, अवकाश प्राप्ति का दिन ज्यों-ज्यों महीनों की परिधि में सिकुडता गया था विदाई के लिए मिलने वाले निमन्त्रणों की सम्भावनायें उनके सामने एक प्रसन्नतापूर्ण क्षण की भ्रांति आकार लेने लगी थी । ऐसे अवसर पर वे क्या कहेंगे, कौनसी बात पर बल देंगे, इत्यादि मुद्दों पर भी उन्होंने सिलसिलेवार विचार कर रखा था । घडी साधारणतः समय बतलायेगी ही । हवा साधारणतः चलेगी ही । विवाहोपरान्त साधारणतः सन्तानोत्पत्ति होगी ही । ढीक इसी तर्ज में कन्हैयालाल जी को बहुत पहले से इस प्रकार के समारोहों की आशा और अपेक्षा थी ।
कई बार अपेक्षित काम हो जाने के बाद इतना नयापन, इतना ताजापन महसूस होता है कि सहसा आश्चर्य की सीमा तक सुख या दुःख व्यक्ति को आप्लाक्ति कर देता है। विद्यार्थी को परीक्षा देने के बाद साधारणतः परीक्षा परिणाम का आभास होता है । फिर भी उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण परीक्षाफल की जानकारी मिलते ही सुखद अथवा दुखद प्रतिक्रिया उसे उस स्थिति विशेष में सामान्य रहने नहीं देती ।
कन्हैयालाल जी को भी यह अपेक्षित निमन्त्रण बेहद सुखद अनुभव हुआ । उनके मुखमण्डल पर प्रसन्नता के रंग कई पतों में तह जमाकर उजागर हो उठे ।
अपनी छलकती खुशी का इस प्रकार बेनकाब हो जाना उन्हें सम्मानजनक नहीं लगा । इसलिये चेहरे पर तटस्थता के भाव लाने का भरपूर प्रयास करते हुए उन्होने चश्मा उतारकर रुमाल से शीशे साफ करने का उपक्रम करते हुए कहा, ‘‘भई, इस औपचारिकता की क्या जरुरत है ?’’
‘‘यह औपचारिकता नही है मंगल जी, हम लोगों की भावनाये है ।’’
स्टाफ यूनियन के प्रतिनिधियों के व्यवहार और कथन में आत्मीयता को परिलक्षित करके उन्हें अपनी भावनाओं में भीनापन धुलता प्रतीत हुआ था । उनकी आंखें नम होते-होते रह गईं थीं । समय, आदि निश्चित करके जब वे लोग वापस लौट गये थे तब भी बहुत देर तक भाव विह्वल और म्रुदित मंगल जी अपने स्थान पर बिना हिले डुले बैठे रह गये थे ।
इसके बाद निमन्त्रणों का तांता सा लग गया था । दफ्तर के क्लको की ओर से निमन्त्रण, अफसरों की ओर से निमन्त्रण, मित्रों की ओर से निमन्त्रण, ढेकेदारों की ओर से निमन्त्रण । उन्हें ये सारे कार्यक्रम नियन्त्रित रखने के लिये डायरी का सहारा लेना पडा था । इन निमन्त्रणों में से किसी ने भी उन्हें इतना रोमांचित और विह्वल नहीं किया जितना स्टाफ यूनियन की ओर से मिले पहले निमन्त्रण ने किया था । उस आयोजन पर उनका भाषण भी बेहद मार्मिक और भावुक किस्म का हो उठा था । अपने प्रारम्भिक द्वन्द्व, ईमानदारी के वरण, आस्तिकता आदि का हवाला देते हुए साथियों के स्नेह के पायदान से गुजरते हुए, समापन से पूर्व उन्होंने उदास होकर कहा था, ‘‘रिटायरमेंट के बाद मैं कहां रहूंगा, क्या करुंगा, कैसे करुंगा, मैं कुछ नही जानता । आप सब का स्नेह मुझ पर बना रहे यह मेरी हार्दिक इच्छा है । फिर भी पता नहीं क्यों मुभ्के एक दोहा बार-बार याद आ रहा हैं, ‘पान झडन्ता यूं कहे, सून तरुवर बनराइ । अबके बिछुडे ना मिलें, दूर पडेंगे जाइ ।’ अन्तिम शब्दों का उच्चारण करते-करते उनकी आंखों से अश्रु ढलक आये थे ।
मंगल जी की उस दिन की अश्रुपूरित भंगिमा, आषाढ प्लावित आंखें आज भी लोगों से भुलाये नहीं भूलतीं । उन जैसा सह्दय, ईमानदार, सहानुभूति से परिपूर्ण, अवांछित कंटकों को समूल उखाड फैंकने में सिद्धहस्त, परिश्रमी और असमझौतावादी, कठोर कहा जाने वाला अफसर यों भी एक दुर्लभ स्मृति के झोंके की तरह था । अपनत्व और स्नेह के छलक आये उस स्त्रोत के दर्शन करके स्मृति का वह झोंका अमिटता के परिधान में लिपट कर स्तुत्य हो गया था । उनके मन की कोमलता ने दफ्तर को अपने अमृत तत्व से सराबोर कर दिया था । वैसे तो जमाने की याददाश्त पर भरोसा करने से बडी मूर्खता दुनिया में शायद ही कोई होती हो, लेकिन मंगल जी का व्यक्तित्व आसानी से भूल सकने जैसा नहीं रह गया था ।
दफ्तर में काफी अर्से तक चर्चा का केन्द्र मंगल जी रहे । किन्तु मंगल जी स्वयं एक ओर भविष्य के सुनहरे-रुपहले भ्रामक तारों में उलभ्के हुए थे और दूसरी ओर अतीत की परछाइयों में । कहते है जब मृत्यु निकट होती है तो अतीत टुकडे-टुकडे बहकर स्मृतियों में रिसने लगता है । यही टुकडे-टुकडे बहकर रिसने वाली स्थिति मंगल जी की, सेवा-निवृत्ति के उस दौर में हो रही थी । वर्तमान उनके लिये गौण, नगण्य हो गया था । सामने से भविष्य और पीछे से अतीत की ठोस गोलाईयां उन्हें दबा कर अपने चंगुल में बनाये रखने के प्रयत्न में थी । वर्तमान की छाती पर खडे वे भविष्य और अतीत की सन्धि रेखा बन गये थे ।
इन्श्योरन्स, प्राविडैण्ट फण्ड मिलाकर लगभग डेढ लाख रुपया बनता था । तीन लडके थे । तीनों के अच्छे परिवारों में विवाह हुए थे । तीनो की अच्छी नौकरियां थीं । दो लडकिया थीं । दो लडकियांथी । दोनो के विवाह खाते-पीते धरों के अफसर लडकों से हुए थे । एक लडका जालंधर में, दूसरा दिल्ली में बसा हुआ था । लडकियां दोनों ही दिल्ली में थीं । छोटे लडके को उन्होंने अपने साथ रखा हुआ था । वह एक राष्ट्रीयकृत बैंक में नौकरी करने वाला मस्त किन्तु पिता के लिये जान लडा देने वाला युवक था । दो आलीशान मकान थे । एक में स्वयं रहते थे । दूसरे से तीन सौ रुपये किराया आता था । एक कार, एक स्कूटर, फ्रिज, सब कुछ था उनके पास । कोई उत्तरदायित्व चिन्तित नहीं करता था । मगर सेवानिवृत्ति के बाद वे क्या करेंगे ? यह प्रश्न उनको परेशान करता रहता था । दोनों लडकों ने अपनी ओर से योजनार्एं प्रस्तावित की थीं । जालंधर वाले बडे लडके मुरारी का प्रस्ताव था कि वहां जाकर एक-डेढ लाख रुपया अपना लगाकर, तीन चार लाख रुपये वितत्त-निगम से ऋण लेकर मोटर पार्टस बनाने का एक कारखाना लगाया जाये । मुरारी के जालंधर में बडे अच्छे रसूखात थे । इस बिना पर उसका कहना था कि सरकार की ओर से सभी सम्भव सुविधार्एं वह जुटा लेगा ।
दिल्ली वाले मंझले लडके गिरधारी ने दिल्ली में पाउडर और क्रीम की एक काटेज इण्डस्ट्री लगाने का प्रस्ताव रखते हुए धंधे के दिल्ली में फलने, फुलने और फैलने का सोदाहरण चित्र बनाया था ।
उनके बहनोई बांकेबिहारी अमृतसर में नसवार की एक फैक्ट्री चलाते थे । उन्होंने अच्छे व्याज या साफेदारी की शर्त पर कारखाने में पैसा लगाकर काम का विस्तार करने के लिये उनकी सहायता चाही थी । एक आध धनिष्ठ मित्र का मत था कि शौक के तौर पर मरीजों को दवा देने का अपना सिलसिला उन्हें धंधे में बदल देना चाहिये । नगर में अपनी प्रतिष्ठा और चिकित्सक के रुप में बनी हुई अपनी साख के बल पर उनकी डिस्पैन्सरी अच्छी ही नहीं बहुत अच्छी चलेगी, ऐसा उनका कहना था ।
मंगल जी स्वयं क्या करुं, क्या न करुं की विचित्र ऊहापोह में फंसे हुए थे । प्रस्ताव एक से एक बढकर अच्छे और आकर्षक थे । उन्होंने छोटे लडके विष्णु से पूछा तो पहले वह मुस्कराया । फिर बडी सहजता से बोला, “आप कुछ भी कीजिये पापा ! मैं आपके पीछे हूं ।”
ज्यादा सोचते विचारते तो एक लम्बी पंक्ति जुड जाती तीखे, तिक्त, टीस भरते हुए अनुभवों की । यों लगता जैसे पूरा का पूरा एक युग तूफान का युग रहा है । मंगल जी उस हहराने तूफान में किसी प्रकार स्वयं को बचाते, छिपाते, जिन्दा हैं । परिस्थितियों ने क्या नहीं कराया है उनसे ? होश संभालने से पहले मां का स्नेहांचल उठ गया । होश आने के बाद पिता अनाथ बना गये । अभिभावक के नाम पर बांध गये एक विमाता से, जिसके पास कन्हैयालाल जी को याचक की अवस्था में लाकर खडा करने के लिये दो सबल कारण थे - एक लडका और एक लडकी । प्रताडन, मार-पीट, अंकुश के नाम पर अत्याचार और इन सब से बढकर भूख जब सीमायें तोडकर हिंसक बन गई तो एक रात को वे धर छोडकर भाग गये । कडाके की सर्दी में नाम मात्र के कपडे पहने, खाली जेब, निराहार, वह बारह वर्षीय बालक जब सडकों पर निकला तो उसके दिमाग में एक संकल्प था, जीऊं गा तो अपने भरोसे जीऊं गा, वरना मर जाऊं गा ।
ठिठुरती रात, सुनसान सडकों पर फैले कोहरे को चीरते हुए जिस संघर्ष की रक्त रेखा कन्हैयालाल जी ने खींची थी अब वह एक रोमांच है- रोंगटे खडे कर देने वाला रोमांच । उस साहसिक अभियान का स्मरण एकाएक भटक जाता । ठाकुर । बारह-तेरह साल का ठाकुर । अनिश्चित स्थान को जाती रेलगाडी के एक डिब्बे में मुडा-तुडा सोया हुआ है । सर्दी को नकारता, गहरी नींद सोता ठाकुर मंगल जी को झकझोर जाता है । पता नहीं कैसे हिम्मत करके फर्श पर बिछे, टांगे छाती से लगाकर सोये ठाकुर की बगल में बैठ गया था कन्हैया। टकटकी लगाकर उसे देखता रहा था और न जाने कब उसके पास में सो गया था । जब नींद खुली थी, वही फर्श था । वही डिब्बा था । वही ठाकुर और कन्हैया था । मगर दोनों एक दूसरे से लिफ्टे हुए थे । सर्दी ने नींद की बेहोशी के दौरान एक करिश्मा किया था, कि कम से कम कन्हैया तो मौत के दायरे से उछलकर जिन्दगी की सीमाओं में आ गिरा था ।
दोनों ने खुली आंखो में आश्चर्य भर कर एक दूसरे को देखा था । फिर एक साथ मुस्करा दिये थे । ठाकुर भी कन्हैया की तरह धर छोड कर भागा था । लेकिन वह कन्हैया की तरह खाली हाथ नहीं भागा था । पच्चीस रुपये चुराकर भागा था । दोपहर में जब उनकी गाडी आखिरी स्टेशन पर जाकर रुकी थी, दोनों गाडी से बाहर निकले थे । उत्सुक दृष्टियों से अपने टूटे-फूटे अक्षर ज्ञान के सहारे उन्होंने स्टेशन का नाम पढा था, दिल्ली ।
वह दिन स्टेशन के बाहर ही गुजारा था दोनों ने । आठ आने खर्च कर पेट भरकर दोनों ने खाना खाया था । तब सस्ताई भी तो थी । फिर रात उतरने पर स्टेशन के बरामदों में एक दूसरे से लिपटकर वे दोनों सो गये थे । सुबह एक-एक रुपये की गोलियां खरीदकर दोनों ने अपना व्यवसाय प्रारम्भ कर दिया था । एक ही गाडी में एक जगह से दूसरी जगह वे मुसाफिरों को गोलियां बेचते । दोपहर को जहा भी हों वही और रात को दिल्ली पहुंचकर अपना भोजन करते ।ं
वर्ष भर बीतते न बीतते एक छोटी सी पूंजी उनके पास जमा हो गई थी । सब बातों से बढकर जो उपलब्धि उनको हुई थी वह थी एक दूसरे पर गहरा विश्वास, प्यार और दोस्ती। उन्हे मात्र अपना व्यक्तित्व अधूरा सा लगता । कन्हैया और ठाकुर दोनों साथ नहीं हो तो पूर्णता नही है । जो कुछ उन्हे परिवार नहीं दे सके वही उन्होंने एक दूसरे को दिया । इस दुनिया में कोई मेरा भी है, मेरे गम में रोने वाला, मेरी खुशी में प्रसन्न होने वाला कोई । यह अनुभूति उनकी सबसे मुल्यवान थाती थी ।
परिस्थितियों ने जिस नाटकीय ढंग से ठाकुर और कन्हैया को मिलाया था वह आश्चर्यजनक घटना मानी जा सकती है, किन्तु शनैः शनैः गहराती मित्रता, पल्लवित होता अनकहा प्यार, उससे भी आश्चर्यजनक घटना थी । दोनों में बिना समझाये एक दूसरे के प्रति ऐसी समझ विकसित हो गई थी कि उनका हर क्षण, हर पल साभ्के का बन गया था । निजी नाम का कोई व्यवधान दोनों के बीच अस्तित्व विहीन था । यही कारण था कि इस खानाबदोश किस्म की जिन्दगी का परित्याग करने की दृष्टि से ठाकुर ने कन्हैया को पढाई चालू करने के लिये कहा और कन्हैया ने ठाकुर को । कई दिनों के तर्क वितर्क के बाद निश्चय हुआ था कि कन्हैया और ठाकुर दोनों ही पढना शरु करेगे ।
इस बीच स्टेशन के पीछे बसी झोंपडपट्टी में एक झोंपडी ठाकुर और कन्हैया ने भी बना ली थी । एक निश्चित चौखट, निश्चित द्वार से सम्बद्ध होने का आश्वासन उनमें सुरक्षा की भावना प्रदीप्त रखने के लिये प्रकाश बिन्दु का काम करता था । सुबह स्कूल, सारा दिन गाडियों में गोलियों की फरोख्त और देर रात गये तक पढाई । नन्हीं मुन्नी उम्र की बडी-बडी थकाऊ उलझनों का सामना करते, स्कूल में अपने साथ पढने वाले, अपने से कम उम्र के साथियों का उपहास सहते, उनसे रश्क करते दोनों डटे रहे । कोई एक अगर उदास हुआ तो दूसरे ने उसे ढाढस बंधाया । कन्हैया यदि आहत हुआ तो ठाकुर ने उसकी हिम्मत बढाई । ठाकुर की आंखो में अगर अश्रुकण झलके तो कन्हैया ने गले से लगाकर उसके आंसू पोंछ डाले ।
कन्हैयालाल जी मंगल को जब वे दिन याद आते है तो लगता है उस अनन्त रेगिस्तान में ठाकुर की दोस्ती का जल, उसके प्यार की हरियाली न होती तो उनकी आज की सामाजिक स्थिति सडक किनारे फैली फटी झोली से भिन्न नहीं होती । सुरक्षा कवच का काम करने वाले ठाकुर ने जितना मानसिक सम्बल उन्हे दिया था, उससे वे कभी उऋण हो सकते है क्या ? यह बात अलग है कि यदि ठाकुर आज जिन्दा होता तो वह भी कन्हैया के बारे में ठीक इसी तरह सोचता । हां, एक और चीज भी थी जिसने हर विषमावस्था में संघर्षरत रहने की उन्हें प्रेरणा दी थी । मन्द-मन्द मुस्कराती, मस्तक से गंगा की धारा प्रवाहित करती, चन्द्र शोभित शिव की मूर्ति । मूर्ति नहीं कलैण्डर था वह जिसे दो पैसे में ठाकुर बाजार से खरीद लाया था ।
इस आस्था के साथ भी एक धटना जुडी हुई थी । उन दिनों उन दोनों ने झोंपडी में रहना चालू किया ही था । एक दिन दोपहर को जब ठाकुर गाजियाबाद जाने वाली गाडी में गोलियां बेच रहा था, किसी साधु ने बुलाकर उसका हाथ देखा था । फिर कहा था ‘‘बच्चा, तुम्हारा भाग्योदय प्रतीक्षा कर रहा है । तुम शिव जी की पूजा किया करो । ‘ओम नमः शिवाय’ का जाप किया करो ।’’
कन्हैयालाल जी को हंसी आ जाती है याद करके । वे दोनो शिवजी के कलैण्डर के सामने बैठकर आंखे बन्द करके नियमपूर्वक ‘ओम नमः शिवाय’ को रटते रहते थे । तब ठाकुर और कन्हैया को वह कलैण्डर बहुत बल प्रदान करता था । ऐसा महसूस होता था उन्हें जैसे एक वरिष्ठ संरक्षक उनकी देखरेख के लिये उपस्थित है, अधिक चिन्तित या परेशान होने की जरुरत कतई नही है । दिनचर्या का आरम्भ और अन्त दोनों ही उस मूर्ति दर्शन व स्मृति से होते थे उनके ।
स्मृतियों की भीड में से एक सहृदय स्मृति कन्हैयालाल जी के मस्तिष्क में कौंधती है । जब ठाकुर और कन्हैया तीसरी या चौथी कक्षा में पढते थे, तब की धटना है यह । उनके स्कूल में हरिचरण मालवीय नाम के हिन्दी के एक अध्यापक थे । बडे सख्त जीव । छोटी से छोटी गलती की सजा भी दो बेंतों से कम नही होती थी । शैतान लडकों को तो वे दरवाजे की ऊपर की लटकन कुंडी से लटकाकर पीछे से इस बुरी कदर धुनते थे कि नया आदमी देखकर दहल जाये । सारा स्कूल उनके नाम से थर्राता था । ऐसे उन अध्यापक जी ने एक बार कोई किताब लाने के लिये कहा था । दो दिन रोजाना उन्होंने कक्षा में पुस्तक न लागे वालों को खडा करके पूछा । तीसरे दिन पुस्तक के लिये पूछने पर खडे होने वाले लडकों में केवल दो विद्यार्थी थे-ठाकुर और कन्हैया । मास्टर जी को ताव आ गया था । उन्होंने दोनों की अंगुलियों के जोडों में पैन्सिल डालकर खूब मरोडे दिये और दूसरे दिन किताब जरुर लाने की चेतावनी देकर चले गये ।
अगले दिन पूछने पर पता चला कि ठाकुर और कन्हैया आज भी किताब नहीं लाये हैं । उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ । उनके भयावने प्रभाव-क्षेत्र का छात्र इस सीमा तक लापरवाह नही हो सकता । छुट्टी के बाद उन्होंने ठाकुर और कन्हैया को अपने पास बुलाकर पुस्तक न लाने का कारण पूछा । डरे और सहमे स्वरों में पैसे न होने की बात कहते-कहते दोनों की आंखे छलछला आयीं । हरिचरण जी की उत्सुकता और बढ गई । उन्होंने परिवार आदि के बारे में प्रश्न् पूछे । वस्तु स्थिति का ज्ञान होने पर वे इतने चकित और विभोर हो उठे थे कि दूसरे दिन अपने दिन अपने पैसों से पुस्तक लाकर उन्होंने ठाकुर और कन्हैया को दी थी ।
इस घटना के पश्चात् हरिचरण जी हर आवश्यकता के समय उन दोनों के काम आये । उनके कठोर व्यवहार और कोमल हृदय का स्पर्श ठाकुर व कन्हैया के हित में अथाह जलराशि के विस्तार में भटकते जहाज के लिये प्रकाश स्तम्भ जैसा प्रबल मार्गदर्शक सिद्ध हुआ । परिश्रम और ईमानदारी के सम्बन्ध में हरिचरण जी ने दूसरे किसी को भले ही कुछ ढील दे दी हो या असावधानी, सुस्ती दिखाने पर माफ कर दिया हो, किन्तु इन दोनों मित्रों को उन्होंने कभी भी क्षमा नहीं किया । अपने अभित्र अंग बेंत का सहारा लेकर, प्रताडित करके, कुछ समय के लिए अपने आप को उदासीन दिखाकर, रुखा व्यवहार करके जैसे भी उन्हें ठीक लगा, ठाकुर और कन्हैया को उन्होंने परिश्रम और ईमानदारी की राह से इधर-उधर हटने नहीं दिया ।
नौकरी के दौरान अपने परिश्रम व निष्ठा के फलस्वरुप ही कन्हैया लाल जी मंगल इतनी जल्दी तरक्की कर सके । हरिचरण जी की उस तपस्या अथवा कठोरता के कारण ही गाडी-गाडी भटकने, हर प्रकार के अच्छे बुरे व्यक्तियों से वास्ता रखने के बावजूद वे दोनों मित्र पथ भ्रष्ट नही हुए । सुसंस्कारित, लगनशील, सद्चरित्र पुरुष निर्माण की महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करने वाले हरिचरण जी भी अब नही रहे हैं । किन्तु उनकी स्मृति कोमल व पवित्र क्षणों में श्रद्धाभाव की हिलोर को तरंगित करने में आज भी उतनी ही समर्थ है जितनी किसी समय उनकी स्नेहभाव बरसाती आंखें हुआ करती थीं ।
मैट्रिक की परीक्षा के बाद गर्मियों की छुट्टियां । धधकती दिल्ली । पसीना चुहाता बदन, भू बरसाता आसमान और अग्निकुंड की तरह तपती धरती । सब को नजर अन्दाज करके कन्हैया और ठाकुर अपने काम में लगे रहते । दोनों बीस-बाईस वर्ष के हो गये थे । गाडियों में गोलियां बेचने की जगह अब वे दोनों साईकिलों पर बेकरी का सामान लेकर निकलते थे, दुकानों पर सप्लाई करने के लिए । आमदनी पहले की तुलना में अच्छी हो जाती थी । पैसे को लेकर कुछ निश्चिन्तता भी आ गई थी । जिस बेकरी से माल लेते थे वहां खरीदते समय भुगतान नहीं करना पडता था । दुकानदारों से हाथों-हाथ या ज्यादा से ज्यादा दूसरे दिन वसूली हो जाती थी । बेकरी वाले से सुबह माल लेते समय पिछले दिन का हिसाब हो जाता था । दस से लेकर पन्द्रह रुपये तक हर एक का कमीशन बन जाता था । मेहनत ही उनकी लागत थी । साइकिल के पीछे बडे खोखे और हैंडिल पर दो बडे तालपतरी के थैले बिस्किट, तोश, समोसे, डबलरोटी आदि से भरकर साइकिल पर दस-पन्द्रह मील के दायरे में चक्कर लगाकर लौटने में उन्हें लगभग पांच घण्टे पसीने में नहाना होता था । शाम को फिर वसूली के लिये निकलता पडता था । बहरहाल पहले की अनिश्चितता से अब उन्होंने छुटकारा पा लिया था । छः सौ से अधिक की दोनों की कमाई थी । सारे खर्चे निकालकर भी चार सौ के लगभग बच जाता था ।